Monday, December 24, 2018

क्या खूब कहा है उस ग़ालिब ने
जिंदगी जीना एक कला है
आँगन के उस सूखे पेड़ की छाँव में
सूरज निकलते हमने भी देखा है
नदियों के प्रवाह सी
प्रबल ज्वाला को
दर-दर भटकते देखा है || 


जमीर 

दो गज जमीन के लिए
उम्र भर का जमीर बेच दिया
लालचों ने इस कदर
इंसान को सौदागर बना दिया
कहते है की ये हिस्सा
उनका है की उस पर हक़
किसी और का नहीं
जरा पूछो कोई इनसे
कहते है खुद को कि
मालिक है हम
अपने ही ईमान का सौदा
कर बैठे दूसरे की जमीन छिन कर
खुद को चिराग बताते है
उस दो गज जमीन का
कहते है की उनके पुरखों
का पुण्य है
अरे जरा कोई पूछो इनसे
जो जमीन इनके पुरखों को
न बचा सकी
उस पर तो ये अपना
जमीर बेच आये है
क्या कौड़ी भर कीमत
भी छोड़ी है इन्होंने उस पर
पर एक शर्त ये भी है
जो छिनी है जमीन इन
जमीरदारों ने उस आँगन से
पर छिन न सके उसका आसरा
वो आज भी मालिक है
अपने उस वक़्त का
जो फिर लौट कर आयेगा
दो वक़्त की रोटी छीनने
चले है ये जमीरदार
जमीन का हवाला देकर
अरे जरा कोई पूछो इनसे
कोई पूछ ही लो आज
जिसकी जमीन छिनी है
उसके दिए किराये पर
इनकी भी तो रोटी बनती है
भूल गए वो दिन जब
उसकी हर महीने की कीमत
जिसको ये किराया कहते है
इतराते फिरते थे
अरे जाओ जमीरदारों
दुआ न मिलेगी तुम्हें
अपने ही ईमान की
जो छिन ली जमीन
उस गरीब की || 

दिसंबर की धुप 

नरम धूप 
और ठण्डी छाँव 
बाँहो का फैलना 
गिनना और बुनना 
फिर रीझ जाना 
बुनते स्वेटर की 
चहलकदमी से धूप 
सेंकना था कि 
शरारतें मुट्ठी भर 
धुप छत से आँगन तक ले जाने की
वापस छत ,छत से आँगन 
और फिर से छत 
तक के सफर में 
धुप को कैद करने 
की जिद में रूठ कर बैठना 
या की चिढ़ जाना 
या चिढ़ा जाना किरणों को 
दिसम्बर की वो दुपहरी 
जब चौपाल लगे 
और परिंदो की 
कहानियो के बीच
खुली आँखों से सूरज 
को देखने की आरज़ू 
मुकम्मल हो || 

Thursday, December 20, 2018

अस्तित्व  


राह चलते अनुभव
को ठोकर लगी तो ,
अनुभवी की गोद में जा गिरा ,
सोचा यहाँ कुछ राहत मिलेगी
एक नई दिशा ठहरेगी ,
मेरी मंजिलों की
कहानियाँ होंगी,
उम्र में लिपटा इतिहास होगा
और पूछा सफर उससे
अपने अस्तित्व का
अनुभवी एकाएक दंभ था
देख कर अपने ही अनुभव को
छ्लक ही गये आँसु आँखों से
लफ्जो की चाल बूढी हो गयी
स्थिर है वो या अस्थिर
चलती है दुनिया
जिंदगी के अंधकार से
निकले झूठी रियायतों
 के चकाचौंध में डूबे ,
अनसुनी हो जाती है
उनकी ही बातें जिनकी
शायद कभी उँगलियाँ
पकड़कर चलना सीखा ,
आँखों का तारा बनाये रखने
की जिद्द थी कभी ,
दशको गुजर आये  शायद ,
बेचेहरा हो गए सभी ,
हाथों में लकीरें न थी
तुम्हें पाने की , 
मन्नत-दर-ठोकरें 
खायी थी हमने 
आज उसी आशियाने 
का हिस्सा माँग ही लिया 
ठोकरों की चोट से 
अनुभवी सँभला 
पर, ठुकराने की 
कशक दिल से न गयी ,
देख कर अनुभव 
अपना ये हाल सोच 
अचम्भित ही था 
और हो चला अलविदा 
अपनों की ठोकरों से |







Saturday, November 24, 2018

शब्द 

वजह भी हूँ मैं ,
बेवजह भी शायद 
परवाह करती हूँ 
तो लिखती हूँ या 
बेपरवाह शब्दों को सवारती हूँ 
मोहब्बत है कलम से ,
तो पढ़ती हूँ कि ,
इश्क़ का मजहब बुनना 
है तो उतारती हूँ स्याही 
को कागज के परदे पर ,
जीने का सलीका सीखना 
है तो सुनती हूँ 
कि अनसुनी चीखों को 
पढ़ने का नजरिया है मुझमें ,
अनुभवी बनना है तो 
लकीरे खींचती हूँ या 
खींची लकीरों के 
पार जाना है मुझको 
बेमूल्य रिश्तों की हिफाजत 
है तो लिखती हूँ 
कि ईमान के सौदागरो 
की नज़रों से बचना है मुझे 
समय कम है तो 
बदलना है मुझे की ,
बीते समय की लड़ाईया 
जहन में जिंदा है मेरे ,
आदतन लिखती हूँ 
या की आगाज है नये 
शब्दो का शब्द जो कि 
हर पहलु में मेरे 
अंदर के मुझमें छुपे 
कहानियों के निगेहबान 
शीशे को जिसकी 
हर परछाई 
तराशती है खुद को 
मेरी कलम की बहती स्याही से 
और इस तरह ये 
बहस मेरे अंदर के 
मुझसे चलती रहेगी 
जिसके हर शब्द को 
मेरी कलम आदतन
 बेपरवाह स्याही  से 
आगाज़-ए -अंजाम देगी 





Monday, November 19, 2018

ख्वाइश है गगन को छू लू मैं
ख्वाइश है आसमान को पा लू मैं ,
ख्वाइश है हवा के झरोखों सी
झरोखों में बहते उन तिनको सी
तिनको की उस कल कल में
कल कल करती उस आवाज में
आवाज वो चिड़ियों के चहकने की
चहचहाट वो आँगन की
आँगन में बिखरी उन खुशियों की
खुशी वो आजाद परिंदे की
परिंदा जैसे खुले आसमान में उड़ने की
ख्वाइश है आज मेरी।।।
पूरी हुईं साँसे आ
अब लौट चले जीवन की ओर ,
जगत की मिथ्या को छोड
अनूठे संगम की ओर
गोल दुनिया के तिरछे
खींचे रास्तों से निकल ,
ईमान -ए -सौदागरो की
महफूज चारदीवारी में
कैद परिंदों की बेसब्री
आबाद हुई ,
झूठे रिश्तो की तालीम से
बेचेहरा हुई, स्याह रातो
की गर्त में डूबे ,
भोर के अँधेरो से निकले,
फिसले या तराशे खुद को
इस बेबाक दुनिया में।

Friday, May 18, 2018

वजह

 वजह 

मेरे आँसुओं से पूछो 
ठहरने की वजह क्या है 
वजह की गहराई से पूछो 
छुपी निर्झारिडी शक्ति 
बहती कम होती 
ह्रदय के तिमिर  से 
पूछो मायूस होने 
की वजह क्या है 
तरसती आँखों से पूछो 
प्यास की वजह क्या है 
मेरी सिसकियों से पूछो 
सुबकने की वजह क्या है
वजह की परछाई 
से पूछो 
भोर की कीमत क्या है 
काश ! कोई मुझसे पूछो 
मेरे आँसुओं की 
वजह क्या है  

बूँद

बूँद 


तबके सुबह के अंधेरों में
कल इसकी रोशनी से
चमकेगी ओस के
जैसी ज़िन्दगी
जो छलक कर जाये
पतियों पर गिरे ,
या अठखेलियां करती
मासूमियत लहरों में
स्याह रातो की गर्त
से निकले आबाद
उस जमाने की
तहजीबों के पैमाने से
नापेगी गहराई उस
उम्र की जो बात
 बात पर रूठे या
खिल उठे थाम के
दामन खुबसूरत कहानी
के आँचल को
जो सिहर उठेगी
इस निस्पंदन जगत में
तूफान लिए !

Sunday, May 13, 2018

बदलाव

बदलाव 


उषा की लालिमा को ,
सफेद चादर से ढकते देखा है
धुंध में चिड़ियों की चहचाहट
को दबते देखा है,
उगते सूरज की लहरों में
बर्फ को बहते देखा है
हारिल को पग पग फिरते देखा है
ओस की बूंदों को सूखे पत्तियों
पर फिसलते देखा है
तपती दुपहरी के बीच ललाटपर
लकीरों को खींचते देखा है
लकीरो के गर्त में आंसुओ
की वजह को दबते देखा है
है पानी के बुलबुले सा जीवन
 आज उसी जीवन को उर्द्धन्द ज्वाल
में शान्त होते देखा है
सदिया गुजर गयी सहारा
बनाते बनाते, उसी सहारे को
सर जमीं पे शहादत ऐ
कुर्बान देखा है
छोटी इमारतों में दबे ऊँचे सपने
उस इमारत को द्रष्टि दी
जिन हाथो ने
आज उनकी सर की छत से
पानी टपकते देखा है
दो वक्त की रोटी को
वर्ष भर खेत में देखा है
कहते जिसे सोने की चिड़िया
आज उस देश के किसान को
कर्ज में डूबते मरते देखा है
सुना है कभी इस देश को '
विश्व गुरु की उपाधि दी थी
पर यह क्या
गुरु को शिष्या की आबरू
सरे आम करते देखा है
देश  की शक्ति को
 लघु लुहान देखा है

दूसरी चिट्ठी

वक़्त किताबों के पन्नों की तरह पलटता जा रहा है और ऐसे ही अब तुम २ वर्ष के एक नन्हें से फूल बनते जा रहे हो ,नन्हें फूल की शैतानियों किलकारियों...