Sunday, June 4, 2017

चाँद

 चाँद 

उस रोज थी में 
ख्वावों की पनाह में 
ढलते सूरज की हसरत 
बिखेरे परछाई मुझ पर 
रंग बदल बदल कर 
गिरे आँसू  मेरे 
वजह थी क्या बता 
सका न वो चाँद भी 
दस्तक वो आहट सी 
रुखी बाते कर गुजर गया वो 
आँखो में झरोखों सी 
बात बुन गया वो
मॅहगी रिवाज़ो में बिकते
सस्ते धागो के रिश्ते
दिखावट की आड़ में
गुम होती परछाई
बेईमानी की राह पर
तरसती तरफ़दारो की अगुवाई
नगमा ऐ जिस्म होती
लाज ये पीर पराई
बिखरते लफ्ज़ो की सिमटती किताबे
सुबकती जिसमे परिंदो की कुर्बानी
है नहीं आज उसका मोल
जो थी कभी अनुभव की कहानी
खाक ये सुपुर्द मिट्टी की सुगंद
धारा का साहिल है ये नम
रुहानी ए राज होते फूलो के रंग
स्याह रातो में बिखरती
लफ्ज़ो की इबादत
झर झर करती जिसमे
राहो की हलचल !!!

दूसरी चिट्ठी

वक़्त किताबों के पन्नों की तरह पलटता जा रहा है और ऐसे ही अब तुम २ वर्ष के एक नन्हें से फूल बनते जा रहे हो ,नन्हें फूल की शैतानियों किलकारियों...