Saturday, September 7, 2019

सारा शहर विकलांग है 

रास्ते जिन पर हर रोज
मज़िलों की आहट गुजरती है
उन पर आँसुओं के कदमो को
कदम भर जगह न मिली
भरे ज़माने की खाली रातों में
क्षण भर में  अस्मिता छीनी
चीखी सन्नाटो के शहर में
भूल बैठी ,भूल बैठी की ये
सारा शहर विकलांग है
स्याह रातों की चीखों को
बड़े ही अदब से अनसुना
 करना बखूबी मालूम है उसे
दहशत फ़ैल गयी शहर में
अस्तित्व पर जो दाग लगे
और पूछा गया - ये दाग ,
और कहाँ कहाँ है
 किस किसने दिए ये दाग
बेशर्म हया थी मेरी जम्हूरियत
बदहवासी कांपती जुबान थी
इतना ही कह सकी बस
खुशनसीब होती जो कोख से
अस्तित्व में न आती ,
सड़क पर जो छींटे थे
हर एक ने हिस्से में बाटें थे
सिसकियाँ फाइल के पन्नों में
लिपटा दी जायेंगी अब ,
प्रमाण पत्र भी न माँगा
जायेगा चरित्र का ,
वो तो अब हर एक शख्शियत द्वारा
अखवारों किताबों और टीवी
पर बड़े ही अफसोस के साथ
सुबह की चाय में पढ़ लिया जायेगा
इंतज़ार रह जायेगा अगली सुबह
एक नयी खबर का | 

धुआँ या ज़िन्दगी 

मैली फटी धोती तलाश गुज़र थी एक कोना संदेह की लकीरें प्रबल होती ललाट पर उसके कुछ कोशिशों की  खाली जेब भरी माचिस आरज़ू कुछ न थी बस थोड़ा सा सफ़ेद धुआँ आदि हो गयी थी उस जहर की जिसे 
वो हर रोज पीती खाती और उड़ाती 
ये एक कोना मानो उसका रेस्टोरेंट था जहाँ वो तय समय पर पहुँच जाती है अकेले | 
नहीं अकेले नहीं समय और धुँए के साथ दो घंटे बिताते हुए प्रयास रहता है अपने हस्ताक्षर करने का जैसे की तमाम कागजातों को उसकी मंज़ूरी का वर्षो से इंतज़ार है उसे उन कागजो की अर्जी को मुकम्मल करना है 
हर दिन मिट्टी पर लकीरें बना और मिटाना उसका पेशा बन गया था 
आज समय से थोड़ी देर में पहुंची वो शायद मांगने में देरी हो गयी और आज धुआँ भी नहीं है उसके पास
कुछ मिला नहीं उसे आज जिससे वो उस धुएं को खरीद सकती
हस्ताक्षर करने की कोशिश भी न की हाथों में जान मालूम नहीं पड़ती उस धुएं में ही तो उसका पोषण था जो भर पेट उसे न मिला तभी एक शख्शियत द्वारा उसकी तरफ कुछ रूपये फेंके गए नज़रो को गहरा कर उसने उन रुपयों की तरफ ध्यान बरकरार रखते हुए उस व्यक्ति को उसकी तिलिस्म वापस कर कहा -
साहब ! मैं भीख नहीं लेती बस मांग कर गुज़ारा कर लेती हूँ
उसके इस जवाब ने दिमाग में एक कौंध करते हुए चिंगारियों की ऐसी अलख सी जगा दी स्वाभिमान की बात को उसने अपनी ढाल बनाते हुए ज़माने को एक तमाचा जड़ते हुए अपनी बेबसी जाहिर न होने दी
और फिर शायद वो पूरी तरह तैयार थी अपने हस्ताक्षरों के साथ एक अमिट छाप
एक औरत की ललकार। 

दूसरी चिट्ठी

वक़्त किताबों के पन्नों की तरह पलटता जा रहा है और ऐसे ही अब तुम २ वर्ष के एक नन्हें से फूल बनते जा रहे हो ,नन्हें फूल की शैतानियों किलकारियों...