नदी
रोयी जब वो हँस कर
कहने लगी कुछ इस कदर
कल थी जो मै धारा पवित्र
तुच्छ क्षीड़ सी
हूँ पूर्ण विराम
लघु का दर्पण
बहता अब कल्पित
थी कल कल में
अनवरत छाया
है पड़ा नज़रो पर
अभिशापित साया
ऋडी उद्धंडता की हसीं
सूखी पड़ी किनारो पर
बेपरवाह मृदुलय सी
ढूढ़े उसे चाँद की रोशनी
लिए भार इतना
फीका पड़ा शीतलता का गहना