Sunday, May 14, 2017

नदी

नदी 

 रोयी जब वो हँस कर
कहने लगी कुछ इस कदर 
कल थी जो मै धारा पवित्र 
तुच्छ क्षीड़ सी 
हूँ पूर्ण विराम 
लघु का दर्पण 
बहता अब कल्पित 
थी कल कल में 
अनवरत छाया 
है पड़ा नज़रो पर 
अभिशापित साया 
ऋडी उद्धंडता की हसीं 
सूखी पड़ी किनारो पर 
बेपरवाह मृदुलय सी 
ढूढ़े उसे चाँद की रोशनी 
लिए भार इतना 
फीका पड़ा शीतलता का गहना

 

Sunday, May 7, 2017

वंदिगी

                                 वंदिगी 

अल्लाह की वंदिगी 
वो कर रहमत मेरी 
हो अगर तेरा साथ 
खिल उठेगी बगिया भी मेरी 
तेरी इनायत के रुतबे 
नजरे कर्म अब मुझ पर भी कर दे 
हूँ मैं तो तेरा छोटा सा नग्मा 
अपनी वंदिगी मुझ में भी भर दे 
रोशनी वो चाँद की 
रुतबा ए मस्जिद का 
खुशबू वो चादर की  मुझ पर भी कर दे 
चाहत वो तेरी दुआ की 
मेरी मुकम्मल कर भी दे 
महरून हो जाती माथे की लकीरे 
तेरी इबादत ऐ सुकून में  
दे दे मुझे रजा या सजा 
हूँ तेरी शिकस्त मे मैं  
हूँ तेरी शिकस्त मे मैं  
  

दूसरी चिट्ठी

वक़्त किताबों के पन्नों की तरह पलटता जा रहा है और ऐसे ही अब तुम २ वर्ष के एक नन्हें से फूल बनते जा रहे हो ,नन्हें फूल की शैतानियों किलकारियों...