Sunday, May 14, 2017

नदी

नदी 

 रोयी जब वो हँस कर
कहने लगी कुछ इस कदर 
कल थी जो मै धारा पवित्र 
तुच्छ क्षीड़ सी 
हूँ पूर्ण विराम 
लघु का दर्पण 
बहता अब कल्पित 
थी कल कल में 
अनवरत छाया 
है पड़ा नज़रो पर 
अभिशापित साया 
ऋडी उद्धंडता की हसीं 
सूखी पड़ी किनारो पर 
बेपरवाह मृदुलय सी 
ढूढ़े उसे चाँद की रोशनी 
लिए भार इतना 
फीका पड़ा शीतलता का गहना

 

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