Tuesday, March 28, 2023

निःशब्दता

शादी के एक हफ़्ते बाद -:   नया घर , नये रिश्ते , नयी रिवाज़ , नया पहनावा , नये चेहरे और मैं भी बिल्कुल नयी सी थी , उस दिन शाम ४ बजे जब मैंने अपने साथ लाया कार्टून खोला तो , उसमें अब तक जमा की गयी मेरी कुछ किताबें थी जो मुझे बहुत प्रिय थी , मेरी सास ने जब वो किताबें देखी ,तो मैं उनका चेहरा देख रही थी बिल्कुल शून्यता थी दोनों चेहरों पर , पता नहीं क्या होगा , मेरे मन मस्तिष्क में सब कुछ जैसे थम सा गया हो , बिल्कुल शान्त थी मैं  | फिर उन्होंने जो कहा उसको सुनकर मेरे पैरों तले जमीन खिसक गयी , मेरी सोच से इतने परे थे वे शब्द जो शायद एक तूफ़ान को भी झकझोर दे , किसी भी अस्तित्व को जड़ से हिलाने  के लिए वे शब्द इतने मुलाज़िम थे कि शायद वर्षो तक आपके ज़हन में कंपन पैदा कर जाये |  प्रेमचंद जी की एक बात मुझे बहुत याद आती है " औरत कुछ भी सहन कर सकती है पर मायके की निंदा असहनीय है " |                                                                                                                                                                       उस दिन जो मैंने उनसे सुना वो शायद मेरे ही नहीं बल्कि शिक्षा जगत के अस्तित्व को कमज़ोर करने लायक है , सवालों का सबब तब से लेकर आज तक मेरे मन में उमड़ रहा है , उस दिन जो शब्द कहे गए थे वे किताबों के जगत को आश्चर्य में डाल देने वाले थे , मुझे नहीं पता कि वो समय गलत था अपनी किताबों को अपनी अलमारी में रखने का , या  मैं गलत थी जो मैंने अपनी माता -पिता की बात को अनसुना कर दिया जो उन्होंने मुझे मना किया था अपने साथ किताबें ले जाने को , क्योंकि शायद उन्होंने पहले ही भाप लिया था कि अगर मैं अपने साथ किताबें ले जाऊँगी तो मुझे ऐसी िस्थति का सामना करना पड़ेगा जिसके लिए मैं बिल्कुल तैयार न थी |  मेरी प्रिय किताबें , जिन्हें पढ़कर मेरा मन प्रफुल्लित हो उठता है , जो मुझे हर दिन चुनौतियों से लड़ने की शक्ति देती है , जो मुझे बताती है कि मुझे खुद को सवारना है , जो मुझे मेरे होने का एहसास दिलाती है , जो मुझे अकेला महसूस नहीं होने देती , जो मेरे अंतर्मन में कोमलता का भाव बनाये रखती है , जो मुझे द्रढ़ता प्रदान करती है उनके लिए मैं इतनी कठोर बात कैसे सहन कर सकती हूँ , या मैंने सहन की उस पल में और चुप रह गयी , उस वक़्त मेरी कोमलता शीशे की तरह बिख़र गयी और मैंने ठान लिया कि मेरी चुनौतियों का समय अब शुरू हो चुका है , आज से मेरी परीक्षा का समय है , हर दिन एक नयी चुनौती , जिसमें मैं अपनी पूरी कोशिश  करुँगी , उस दिन से आज तक मैंने अपनी कोशिशों को कभी विराम नहीं दिया और आगे भी नहीं ,ये सब इसलिए नहीं कि मुझे उनसे बदला लेना है या उनको जबाव देना है , जबाव मेरे पास उस दिन भी था और आज भी है  बल्कि इसलिए कि जिनके अस्तित्व पर ऊँगली उठाई है , अपने साथ लाने पर उनके सहारे मैं ख़ुद को खड़ा कर पाऊं |                                                                                                                                                                           और आखिर में वो शब्द थे -: "तुम्हारे बाप ने दहेज़ में सिर्फ़ तुम्हें किताबें दी है "  ये शब्द लिखते हुए मेरे हाथ काँप रहे है  पर क्यूँ ? सवाल -: शादी के बाद अपने साथ किताबें लाना गलत है  ? या मेरे पापा ने फ्रिज और सब सामान नहीं दिया वो गलत है ? क्या किताबें इतनी तुच्छ वस्तु है जो दहेज़ में नहीं जाती है ? या एक जो मेरे मन में कौंध कर जाती है वो ये कि जिस घर में किताबों के आने पर दहेज़ की बात उठायी जा रही है क्या वो घर सही है ? 

दूसरी चिट्ठी

वक़्त किताबों के पन्नों की तरह पलटता जा रहा है और ऐसे ही अब तुम २ वर्ष के एक नन्हें से फूल बनते जा रहे हो ,नन्हें फूल की शैतानियों किलकारियों...