Sunday, September 17, 2017

एक बूँद ज़िंदगी

 एक बूँद ज़िंदगी


सुना है जिंदगी खेल खेलती है खेल तो एक जिंदगी बन गयी है एक ऐसा खेल जिसमे निर्णायक भी 
हम होते है और खिलाडी भी हम समझ में नहीं आता खिलाडी हम है या जिंदगी क्या कभी सोचा है 
की निर्णायक होते हुए भी हम ही क्यों हार जाते है क्यों हताशा हमें मिलती है और दोष जिंदगी का 
हारने में बड़ा मज़ा आता है और जीतने की कोशिश हम करते नहीं 
जिंदगी हमसे नहीं कहती की ट्रैफिक लगने पर इधर उधर से निकले अपनों को बेसहारा छोड़ कर जाने 
में जरा भी नहीं हिचकिचाते।  हेलमेट सिर्फ दिखाने की वस्तु नही होती |
इसी हेलमेट में अपनों की आशाएं उत्साह जीवन की उमंग सपनो का सागर बसा होता है जिसे हम बेकार की वस्तु समझ  छोड़ कर चले जाते है इसका परिणाम सपनो के सागर में तूफान बनकर आता है और दोष जिंदगी पर लगता है
काश ! यही बात उसने समझी होती तो आज उसके परिवार को लोगो की मीठी कहावत जो कड़वे शब्दो से कही जा रही नहीं सुननी पड़ती कहने को तो दस वर्ष हो गये उसे गुज़रे हुए पर आज भी उसके सपनो पर समाज के ताने बाने का ग्रहण लगा हुआ है काश ! उस दिन वह बाजार हेलमेट लगा कर जाता अब बस कहने की बात रह गयी हैउसका बड़ा बेटा अनूप जो अपनी माँ और छोटी बहन की परवरिश करने में लगा है एक फूड प्रोडक्टिंग कंपनी में काम करता है उनके लिए हर वो कोशिश करता है जिससे वो खुश रह सके बाहर से तो तीनो ही खुश नजर आते है मानो कुछ हुआ ही नही उनके सपने बुनने से पहले बिखरे नही पर अंदर ही अंदर सपनो का दलदल बनता जा रहा है जिसमे उनकी उम्मीद मानो डूब ही चुकी है अनूप की उम्मीद की किरण अभी बाकी है उगते सूरज की प्यास अभी जिन्दा है एक हफ्ते पहले जो मैनेजर के पद के लिए उसका इंटरव्यू हुआ था अब बस सभी की निगाहे उसी पर टिकी है
सुबह हो गयी न किसी ने नाश्ता किया न उसकी छोटी विद्यालय गयी अनूप और उसकी माँ की निगाहें दरवाजे पर टकटकी लगाए हुए है कि कब डाकिया आयेगा और वो पत्र लाएगा जिसमे उनका भविष्य
होगा आखिर थोड़ी देर बाद डाकिया आ ही जाता है और अनूप की मेहनत और काबिलियत उसकी माँ के माथे की लकीरें कम कर देती जो उसके पिता के मरने पर खींच गयी थी

Sunday, September 10, 2017

आज फिर वो फुटपाथ पर सो गयी 

आज फिर वो फुटपाथ पर सो गयी 
छोड़ कर सपनो की नींद,
रात भूख के साथ सो गयी 
ओढ़ी चादर बेबसी की 
कल कोई आकर उसे 
जगा ही दे उसकी भूख 
मिटाने को खाना दे ही दे 
तब तक गुंजती रही किलकारी 
जो झकझोर रही उसकी
 खामोशी सहन न कर सकी 
भूख अपने उस त्याग की 
जिसको उसने जन्म तो दिया 
पर पेट भरने के लिए 
उम्मीद न दे सकी ,
शर्मनाक होते इस झूठे 
जहाँ में निकली वो जिस्म की 
कैद से छोड़ कर रूह के 
खाब बंध ही गया फंदा 
और हो गयी पनाह 
भूख के आबाद
सो गयी मौत की नींद 
वो किलकारी के साथ
 आखिर सो ही गयी वो 
भूख के साथ मौत की नींद।।।।।

दूसरी चिट्ठी

वक़्त किताबों के पन्नों की तरह पलटता जा रहा है और ऐसे ही अब तुम २ वर्ष के एक नन्हें से फूल बनते जा रहे हो ,नन्हें फूल की शैतानियों किलकारियों...