Sunday, June 4, 2017

मॅहगी रिवाज़ो में बिकते
सस्ते धागो के रिश्ते
दिखावट की आड़ में
गुम होती परछाई
बेईमानी की राह पर
तरसती तरफ़दारो की अगुवाई
नगमा ऐ जिस्म होती
लाज ये पीर पराई
बिखरते लफ्ज़ो की सिमटती किताबे
सुबकती जिसमे परिंदो की कुर्बानी
है नहीं आज उसका मोल
जो थी कभी अनुभव की कहानी
खाक ये सुपुर्द मिट्टी की सुगंद
धारा का साहिल है ये नम
रुहानी ए राज होते फूलो के रंग
स्याह रातो में बिखरती
लफ्ज़ो की इबादत
झर झर करती जिसमे
राहो की हलचल !!!

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