लकीरें खींच गयी मुल्क में
बाँट लिया गया आसमान
धोखे और छल ने लूटी
समाज की इंसानियत
वतन की आजादी को कायम
सरहद के ताबुओ में है
माँ का इंतज़ार ,
माँ के आँचल को तड़पा तो
खाक-ए-सुपुर्द हुआ
लघु बह गया बनकर कुर्बानी
उड़ी पतंग जैसे कटी डोर जिंदगी की
हाथ आयी बन तिरंगा ,
और रह गयी बस एक निशानी ||
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